लेखक : चैतन्य गोपाल
**** बरा-भात ***
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मुझे लगता है मृत्यु विचित्र है, फिर लगता है नहीं! मृत्यु विशिष्ट भी तो है।जब आप किसी अपने की राख से अस्थियां निकाल कर कलश में डालते हैं या किसी ताबूत में अंतिम कील ठोकी जाती है। या फिर किसी दुल्हन की तरह सजे जनाजे से लाश निकालकर दफनाया जाता है, मुझे लगता है यही प्रक्रिया तो विशिष्ट है। जबकि दूसरी ओर विचित्र इसलिए कि किसी के अंत को अंत समझ कर उस तथा कथित अंत को,मरने वाले की अनुमति के बिना सार्वजनिक कार्यक्रम में तब्दील कर देना। यदि आप गंभीरता का क्रम निर्धारित करते हैं तो फिर वह गंभीरता नहीं रही।
मृत्यु के बाद भी आप इसी क्रम को देख सकते हैं यदि आप एक मध्यम वर्गीय या जमीन से जुड़े व्यक्ति हैं तो आपने भी देखा होगा एक तबका जो केवल भीड़ का एक छोटा हिस्सा होता है उनकी गंभीरता इस बात पर निर्भर करती है कि इस मृत्यु के कार्यक्रम में बने एक विशेष पकवान (उड़द दाल के बड़े) कठोर हैं या फिर मुलायम। इस लेख की गंभीरता भी दो तरह के लोगों के बीच देखी जा सकेगी। पहले तो वो लोग जो इस लेख से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करेंगे और दूसरी तरफ होंगे वो लोग जो अपनी आंखों में एक चश्मा लगाकर इस लेख में अपनी रीति रिवाज तथा भावनाओं को आहत होता हुआ पाएंगे।